PRE42 समुदाय: अंडमान-निकोबार के असली बाशिंदे, पर आज भी पहचान के लिए संघर्ष

PRE42 समुदाय: अंडमान-निकोबार के असली बाशिंदे


✍️ लेखक: विक्रम
स्थानीय PRE42 समुदाय से, अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह


🌴 हम कौन हैं?

जब लोग अंडमान और निकोबार की बात करते हैं, तो उन्हें नीला समंदर, हरियाली और शांति याद आती है।
पर इस धरती को बसाने वालों की कहानी कोई नहीं बताता — और वो हैं हम PRE42 लोग।

PRE42 का मतलब है वो परिवार और उनके वंशज जो 1942 से पहले,
जापानी कब्ज़े और द्वितीय विश्व युद्ध से पहले ही अंडमान-निकोबार द्वीपों में बस चुके थे।

हमारे पूर्वजों को ब्रिटिश सरकार यहाँ लेकर आई —
कोई दंड के रूप में, कोई जेल के सिपाही के रूप में, कोई मजदूर, और कुछ खेती के लिए।
उन्होंने यहाँ जंगल काटकर, ज़मीन समतल कर के, गाँव बसाया — और इसी ज़मीन को अपनी मातृभूमि बना लिया।

🔥 संघर्षों भरा अतीत

🇯🇵 जापानी कब्ज़ा (1942–45)

जब जापान ने द्वीपों पर कब्ज़ा किया,
तो सबसे ज़्यादा अत्याचार PRE42 परिवारों पर ही हुए।

जबरन मज़दूरी करवाई गई

कई लोगों को मारा गया या ग़ायब कर दिया गया

महिलाओं को परेशान किया गया

हमारे गाँव और ज़िंदगी उजड़ गई


लेकिन हमने हार नहीं मानी, हम भागे नहीं —
हम अपने द्वीपों के साथ डटे रहे।

🇮🇳 भारत में शामिल होने से पहले और बाद का फर्क

आज़ादी से पहले:

हमारे पूर्वजों को अंग्रेज़ों ने यहाँ भेजा था।
उन्होंने जो जंगल और वीरान ज़मीन थी, उसे बसाया।

अगर हमारे पूर्वज यहाँ आकर यह द्वीप न बसाते,
तो शायद आज अंडमान और निकोबार भारत का हिस्सा ही नहीं होता।

👉 ये बात कोई नहीं कहता, लेकिन ये सच्चाई है।

आज़ादी के बाद:

जब भारत आज़ाद हुआ और अंडमान भारत में शामिल हुआ,
तो हम लोगों को लगा कि अब हमें अधिकार मिलेगा,
लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

भारत सरकार ने देश के अलग-अलग हिस्सों से हजारों लोगों को यहाँ बसाया,
उन्हें ज़मीन, नौकरी और सरकारी सुविधाएँ दी गईं।

और हम, जो पहले से यहाँ रह रहे थे,
हमें नजरअंदाज कर दिया गया।

🧾 क्या हमें कुछ मिला?

सिर्फ एक चीज़ मिली — OBC (अन्य पिछड़ा वर्ग) का दर्जा।

लेकिन उसका भी कोई खास फ़ायदा नहीं हुआ।
क्योंकि बाहर से आए लोग,
जो अब “स्थानीय” कहलाते हैं,
हमारे हिस्से की नौकरी, ज़मीन और योजनाएं ले रहे हैं।

हम आज भी:

ज़मीन का पट्टा पाने के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटते हैं

डोमिसाइल और जाति प्रमाण पत्र बनवाने के लिए परेशान होते हैं

नौकरी और शिक्षा में पीछे छूटते जा रहे हैं

🧍‍♂️ आज की सच्चाई

हमारे पास कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं है

हमें अब भी “बाहरी” जैसा महसूस कराया जाता है

हमारे त्योहार, भाषा और संस्कृति धीरे-धीरे मिटती जा रही है

फिर भी हम लोग मेहनत से जी रहे हैं,
खेती, छोटा व्यापार, मजदूरी, सरकारी सेवा — सब में लगे हुए हैं।

💪 हमारी भूमिका को मत भूलिए

हम PRE42 लोग द्वीप के पहले रक्षक हैं।

हमारी बदौलत ये द्वीप आबाद हुआ।
अगर हमारे पूर्वजों को अंग्रेज़ यहाँ न लाते,
अगर उन्होंने गाँव न बसाया होता,
तो आज भारत के नक्शे पर अंडमान शायद न होता।

👉 इसलिए हमें नज़रअंदाज़ करना मतलब इतिहास से धोखा करना है।

🛠️ हमें क्या चाहिए?

हम किसी से भीख नहीं माँगते।
हम सिर्फ वो मांगते हैं, जो हमारा हक़ है।

1. स्थानीय पहचान

हमारी ज़मीन का कानूनी मालिकाना हक (पट्टा) दिया जाए


2. स्थानीय आरक्षण और योजनाएं

PRE42 के लिए शिक्षा, नौकरी, व्यापार में अलग कोटा बनाया जाए

बाहर से आए लोगों की एंट्री पर नियम तय किए जाएं


3. संस्कृति का संरक्षण

हमारी भाषाओं, त्योहारों, और पारंपरिक रिवाज़ों को सरकारी पहचान मिले

PRE42 की कहानी स्कूलों में पढ़ाई जाए


4. राजनीतिक भागीदारी

पंचायत, नगर परिषद, सांसद या विधायक स्तर पर PRE42 समुदाय का प्रतिनिधित्व तय हो

🏝️ हमारे लिए अंडमान ही सब कुछ है

हम PRE42 लोगों के लिए अंडमान और निकोबार द्वीप ही सब कुछ हैं।
इसके बाहर ना हमारी कोई पहचान है, ना रोज़गार, ना ज़मीन, ना ही कोई और सहारा।

लेकिन आज हालात ये हैं कि:

सरकार ने मुख्यभूमि (mainland) से हजारों लोगों को लाकर यहाँ बसा दिया

ये लोग आज हर विभाग, हर सरकारी पद, हर नौकरी में छाए हुए हैं

अंडमान के हर कोने में, हर शहर में, हर पंचायत में, इनका प्रभाव है


हमारी ज़मीनों पर कब्ज़े (encroachment) हो रहे हैं,
जो आज झुग्गियों से लेकर कॉन्क्रीट की इमारतों तक बन चुके हैं।

👉 क्या यह इंसाफ़ है?


🧾 शेखर सिंह आयोग की चेतावनी

आपको जानकर हैरानी होगी कि
1990 के दशक में बनी "शेखर सिंह आयोग" ने खुद माना था कि:

> “अगर अंडमान-निकोबार द्वीपों में बाहरी लोगों का अनियंत्रित आना-जाना जारी रहा,
तो स्थानीय आबादी — जैसे PRE42 समुदाय — अपने ही द्वीपों में अल्पसंख्यक बन जाएंगे।”


आयोग ने सिफारिश की थी कि:

अंडमान में भी “इनर लाइन परमिट (Inner Line Permit)” लागू होना चाहिए

जिससे बाहरी लोगों का बसना, ज़मीन खरीदना और स्थायी रूप से बस जाना रोका जा सके


लेकिन अफ़सोस!
सरकार ने इस सिफारिश को कभी लागू नहीं किया।
और आज वही हो रहा है —
हम अपने ही घर में अजनबी बन चुके हैं।



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